हरिगोविंद विश्वकर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)
पूरा देश बड़े ज़ोर-शोर और उत्साह से हर साल 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। जो भी नेता प्रधानमंत्री होता है, वह लाल किले की प्राचीर से टीवी देखने वाली जनता को एड्रेस करता है। उसका भाषण दूसरे दिन अख़बार पढ़ने वाले पढ़ते हैं। पीएम दरअसल आदर्शवादी बातें करता है। सबसे बड़ी बात, उसकी किसी घोषणा पर अमल नहीं होता और, अगर किसी पर होता भी है, तो उससे देश के आम लोगों को कोई फ़ायदा नहीं होता। पिछले 68 साल से यही सब चल रहा है। इतना ही नहीं देश में आज़ादी का जश्न मनाने के लिए हर साल अरबों-खरबों रुपए बहा दिए जाते हैं। लोगों को याद दिलाया जाता है कि हम कभी ग़ुलाम थे, अंग्रज़ों के ग़ुलाम। इसी दिन सवा दो सौ साल से ज़्यादा समय तक रही उस ग़ुलामी से आज़ाद हुए। कांग्रेस और सेक्युलर विचारधारा के लोग इस आज़ादी का क्रेडिट महात्मा गांधी ऐंड कंपनी को देते हैं, तो अपने को राष्ट्रवादी कहने वाले लोग सुभाषचंद्र बोस, सावरकर और भगत सिंह वगैरह को।
आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने और इतना तामझाम करने से आम आदमी के मन में सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या सचमुच भारत ग़ुलाम था? क्या वाक़ई अंग्रेज़ अत्याचारी थे। क्या वास्तव में हिंद महासागर की करोड़ों जनता, जैसा कि तथाकथित देशभक्ति वाली फिल्मों में दिखाया जाता है, को उन्होंने ग़ुलाम यानी बंधक बना रखा था? जो 15 अगस्त को सब के सब आज़ाद हो गए। वस्तुतः 14 अगस्त 1947 की रात सत्ता-हस्तांतरण हुआ था। ब्रिटिश इंडिया के दो टुकड़े हुए गए और दुनिया के मानचित्र पर इंडिया यानी भारत और पाकिस्तान नाम के दो राष्ट्र अस्तित्व में आए। अब सत्ता-हस्तांतरण को आज़ादी कहना क्या सही है? इतिहास की मामूली समझ रखने वाला आदमी हैरान होता है कि आख़िर अंग्रेज़ों के शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है। सारा सिस्टम पुलिस, ब्यूरोक्रेसी, ज्यूडिशियरी और तमाम क़ानून, आर्मी और गवर्नेंस प्रणाली अंग्रेज़ों की हैं, तब उनकी शासन ग़ुलामी की प्रतीक कैसे हो सकता है।
यह भी सर्वविदित है कि शुरुआती दौर को छोड़ दें तो अंग्रेज़ों का शासन हिंदू सम्राटों-नरेशों और मुस्लिम सुल्तानों की तुलना में ज़्यादा सिविलाइज़्ड और लॉ-ओरिएंटेड था। जलियांवाला में फायरिंग की वारदात को अगर छोड़ दें, तो दूसरा कोई उदाहरण नहीं मिलता, जब अंग्रेज़ों ने आम जनता पर कोई अत्याचार किए हों। हालांकि जलियावाला बाग हत्याकांड की हाउस ऑफ़ कॉमंस ने निंदा की थी। चर्चिल की पहल पर हंटर कमीशन ने जांच की और ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर को पदावनत करके कर्नल बना दिया गया। उसे भारत में पोस्ट न देने का निर्णय लिया गया। कहने का मतलब, अंग्रेज़ हर घटना के लिए फिरंगी जवाबदेही तय करते थे, जिसका स्वतंत्र भारत में नामोनिशान तक नहीं। फिर अंग्रेज़ी हुकूमत में सभी आदेशों का पालन यहां के स्थानीय लोग ही करवाते थे, जैसे आजकल पुलिस या सरकारी कर्मचारी करते हैं। यानी जिस शासन में स्थानीय लोग शामिल हों, उसे शासन ग़ुलामी कैसे कहा जा सकता है।
अंग्रेज़ी शासन में सामाजिक दशा का बारीक़ी से विश्लेषण करने पर साफ़ लगता है कि गोरों के सवा दो सौ साल की अवधि में हालात उतने ख़राब नहीं थे,जितने हिंदू-मुस्लिम शासकों के दो हज़ार साल के शासन में। मसलन, सभ्य समाज के लिए कलंक सती प्रथा चंद्रगुप्त मौर्य के शासन से थी। सती के नाम पर हर साल लाखों महिलाओं को उनके मृत पतियों की चिता पर ज़बरी ज़िंदा जला देते थे! अंग्रेज़ सभ्य थे। सती प्रथा उन्हें भी नागवार और बर्बर लगी। स्त्री को इसलिए ज़िंदा जला देना, क्योंकि उसका पति मर गया, क्रूरतम घटना थी। यह जिसके भी शासन में हुआ, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता। इस जंगली प्रथा को अंग्रेज़ों ने सन् 1829 में पहले बंगाल में फिर अगले साल दूसरे हिस्से में क़ानून बनाकर बंद किया। संस्कृति को गौरवशाली कहने वालों ने बेशर्मी का प्रदर्शन करते हुए फ़ैसले को प्रीवी कॉउंसिल में चुनौती दी, लेकिन वहां भी माना गया कि सती प्रथा जैसी जंगली व्यवस्था को जारी रखने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। उस समय गंदी परंपरा दास प्रथा भी थी। इंसानों की ख़रीद-फ़रोख़्त होती थी। दासों को इंसान समझा ही नहीं जाता था। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों ने 1834 में लॉ कमीशन बनाया और 1860 में इंडियन पैनल कोड बनाकर सदियों पुरानी दास प्रथा को भी ख़त्म किया। अंग्रजों ने आईपीसी में महिलाओं के साथ ज़बरी सेक्स की वारदात रोकने के लिए ऐसा करने वाले पुरुषों को 376 सेक्शन के तहत विधिवत सज़ा का प्रावधान किया गया। इससे पहले सती प्रथा, बहुतपत्नी प्रथा और दास प्रथा जैसी बुराइयों को संरक्षण देने वाले ही मनमाना न्याय करते थे।
गौरवशाली कहे जाने वाले प्राचीन और मध्यकाल में बहुपत्नीवाद की पाशविक व्यवस्था थी। पुरुष एक से ज़्यादा पत्नियां रखता था। हिंदू-मुस्लिम शासक,राजा, सामंत, भूस्वामी, शासकों के दलाल और सत्ता का लाभ भोगने वालों के पास तो कई दर्जन बीवियां होती थीं। ख़ुद चंद्रगुप्त ने चार शादियां की थी। उसकी एक बीवी ग्रीक की राजकुमारी हेलेना भी थी। उस समय हर राजा का रनिवास या हरम होता था। जहां रानी और चेरी के रूप में सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं और अनेक किन्नर होते थे। सभी राजाओं का जीवन कमोबेश लिबिया के ऐय्याश शासक मुअम्मर गद्दाफी जैसा था। सभी राजा, नरेश और सुल्तान तबीयत से विलासी थे। हरम में ऐसी भी तरुणियां होती थीं, जिनसे राजा एकाध बार ही सेक्स कर पाता था। शेष उम्र वे नारकीय जीवन जीती थीं और मनोरोगी हो जाती थीं। मतलब, जिनके बारे में इतिहास की क़िताबों में गर्व से पढ़ाया जाता हैं और नायक माना जाता है, वे नायक नहीं, ऐय्याश थे। उन्हें विकास नहीं, बल्कि जवान लड़की चाहिए थी, सेक्स के लिए। अंग्रेज़ों ने क़ानून बनाकर आईपीसी 494 के तहत राजाओं के कई शादियां करने पर रोक लगा दी। जो बाद में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 का आधार बना। दरअसल, पूरा प्राचीन और मध्यकाल का दौर औरतों के लिए त्रासदीपूर्ण था। महिलाओं और ग़रीबों को इंसान समझा ही नहीं जाता था। उस दौर में बाल-विवाह, छूआछूत व जातिवाद जैसी बुरी प्रथाएं भी थीं! कई इतिहासकार भ्रम पैदा करने के लिए प्राचीनकाल में संस्कृति को गौरवशाली बताते हुए अंग्रज़ों के शासन को ग़ुलामी करार देते हैं, जबकि इस भूखंड पर संस्कृति कभी गौरव करने लायक रही ही नहीं।
कहने का मतलब सामाजिक मुद्दों पर अंग्रेज़ हिंदू-मुस्लिम शासकों से ज़्यादा संवेदनशील और दूरदर्शी थे। सबसे बड़ी बात अंग्रेज़ों ने अपने शासनकाल में विधिवत चुनाव भी करवाए। सन् 1920 के बाद कई बार चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग और हिंदूवादी दलों के अपने को स्वतंत्रता सेनानी कहने वाले कई नेताओं ने शिरकत की थी। गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट के बाद 1937 के प्रॉविंशियल चुनाव में तो बड़ी तादाद में लोगों ने हिस्सा लिया। अगर ग़ुलाम रहे होते तो चुनाव में हिस्सा ले पाते? सरकार में शामिल हो पाते? यानी अंग्रेज़ के शासन में देश में विधि का शासन था। जो क़ानून तोड़ता था, उसके ख़िलाफ़ बेशक कार्रवाई होती थी। क़ानून तोड़ने वालों के साथ आज भी वैसा ही सलूक होता है। ऐसे में सवाल उठता है, तब अंग्रेजों के इतने सभ्य शासन को ग़ुलामी क्यों कहा जाता है? जबकि हर अंग्रेज़ शासक अपने देश की संसद हाउस ऑफ़ कॉमंस के प्रति जवाबदेह होता था।
सबसे अहम अंग्रेज़ों के यहां आने से पहले भारत या इंडिया जैसे किसी देश का अस्तित्व ही नहीं था। अगर इंडिया नाम का राष्ट्र है, तो इसका श्रेय केवल अंग्रेज़ों को जाता है। वर्ना इंडियन सब-कॉन्टिनेंट फ़िलहाल देश नहीं, यूरोप की तरह छोटे-छोटे अनगिनत राष्ट्रों का भूखंड होता। दरअसल, अंग्रेज़ व्यापारियों ने महारानी की अनुमति से एशिया के द्वीप समूहों (इंडीज़) में कारोबार के लिए सन् 1600 के आख़िरी दिन ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई. वास्को डिगामा के 1498 में भारत (कालीकट) में क़दम रखने के बाद सौ साल में पुर्तगाल, हॉलैंड और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों के व्यापारी यहां पांव जमा चुके थे. लिहाज़ा,ब्रिटेन भी चाहता था कि उसके व्यापारी दुनिया के पूर्वी हिस्सें में कारोबार के लिए जाएं. बहरहाल कंपनी 17वीं सदी के आरंभ में भारत पहुंची। 1617 में मुग़ल शासक नुरूद्दीन मोहम्मद सलीम उर्फ जहांगीर ने अंग्रेज़ों को व्यापार की इजाज़त दे दी. इस तरह अग्रेज़ों की व्यापारिक गतिविधियां शुरू हो गईं.
अंग्रेज़ व्यापारियों ने गौर किया कि हिंद महासागर का यह भूभाग साढ़े छह सौ से ज़्यादा रियासतों और सूबों में बंटा है। राजा एक दूसरे से ही लड़ रहे हैं। लड़ाइयां भी जनता के हित के लिए नहीं, बल्कि किसी सुंदरी हासिल करने या सीमा-विस्तार के लिए लड़ी जा रही हैं। राजाओं की आपसी फूट देखकर अंग्रेज़ों को लगा कि इस भूभाग को नियंत्रण में लिया जा सकता है। बस कंपनी ने निजी सेना बना ली। 1757 में प्लासी युद्ध में बंगाल नवाब सिराजुद्दौला व फ्रांसीसी सेना को हराने के बाद कंपनी का शासन शुरू भी हो गया। बाद में राजाओं-सुल्तानों-नवाबों की आपसी फूट का फ़ायदा उठाकर कंपनी ने एक-एक करके सबको हराया और अपने अधीन कर लिया। 19वीं सदी के शुरुआत में गोरों ने कमोबेश पूरे इलाक़े पर कंट्रोल कर लिया। 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी से ईस्ट और कंपनी शब्द हटाकर ब्रिटिश शब्द जोड़ दिया और इस भूखंड का नाम `ब्रिटिश इंडिया’ हो गया जो अंततः एक देश बना। उसका शासन सीधे ब्रिटिश संसद से होने लगा।
प्राचीन भारत का इतिहास मोटा-मोटी मौर्यवंश (ईसा पूर्व 340) से शुरू होता है,लेकिन कभी भारत नाम का कोई देश अस्तित्व में नहीं रहा। चंद्रगुप्त ने मगध पर शासन किया। बाद में कई राजा हुए, जिन्होंने अलग-अलग समय पर अलग-अलग भूखंड पर राज किए। यानी चंद्रगुप्त से हर्षवर्धन और पृथ्वीराज चौहान तक किसी को भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता। आठवीं सदी में मोहम्मद बिन कासिम ने आक्रमण का सिलसिला शुरू किया. जनता निरक्षर और ग़रीब होती थी लेकिन हिंदू राजाओं के पास बड़ी दौलत होती थी। मंदिरों में भी स्वर्ण मूर्तियां समेत स्वर्ण भंडार था। यही दौलत लुटेरों को लुभाती थी। इसीलिए बाद में महमूद गजनवी ने भी धावा बोला और सोमनाथ मंदिर समेत कई धार्मिक स्थलों को लूटा। लुटेरे इसलिए कामयाब हुए, क्योंकि राजा आपस में लड़ते थे. बहरहाल, 12वीं सदी में दिल्ली सल्तनत के साथ यहां मुस्लिम शासन का आग़ाज़ हुआ. उस समय कई हिंदू राजाओं का भी शासन था। सारे राजा या सुल्तान एक दूसरे से लड़ रहे थे। 16वीं सदी के आरंभ में इब्राहिम लोदी के राज में ज़हीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने आक्रमण किया। वह लूटने के मकसद से आया था, पर पानीपत युद्ध में लोदी का सिर क़लम करने के बाद उसे लगा कि यहां लंबे समय तक राज किया जा सकता है. उसने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की। बाबर के बाद हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां और औरंगज़ेब शासक रहे। मुग़लों का राज्य बहुत बड़ा था, परंतु उन्हें बराबर कई हिंदू, मराठा, राजस्थानी या सिख राजाओं से चुनौती मिलती रही। यानी पूरे हिंद सब-कॉन्टिनेंट पर प्राचीन काल की तरह मध्यकाल में भी कभी किसी एक सुल्तान का क़ब्ज़ा नहीं रहा। यानी कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर अंतिम मुग़ल सुल्तान बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय तक किसी को भारत का प्रतिनिधि नहीं कहा जा सकता।
अगर प्रशासनिक नज़रिए से देखें तो ब्रिटिशकाल की किसी से तुलना ही नहीं हो सकती! राजा-सुल्तान जीवन भर मंदिर, मस्जिद, स्मारक और मक़बरे ही बनवाते रहे। जो पुजारी एवं मौलवी जैसी जाहिल-काहिल क़ौम का अड्डा बना। अस्पताल, कॉलेज या यूनिवर्सिटीज़ यहां अंग्रेज़ों ने ही बनवाए। कभी-कभी लगता है कि अंग्रेज़ आ गए, तो यहां के लोग पढ़-लिख लिए, नहीं तो अब तक गुरुकुल या मदरसे में संस्कृत और उर्दू पढ़ रहे होते। फ़िरंगीकाल में नेचर ऑफ़ ऐडमिनिस्ट्रेशन बहुत बेहतर था। सच यह भी है कि यहां रेल, टेलीफोन, डाकघर,पुलिस, सड़क, बंदरगाह, पुल, इमारतें वगैरह अंग्रेज़ों ने ही बनवाए? मुंबई का उदाहरण लें तो यह भूभाग प्राचीनकाल से जस का तस पड़ा था। सात छोटे द्वीपों में उजड़ा पड़ा था। इस दौरान यह पहले हिंदू शासकों फिर मुसलमानों के अधीन रहा। 1534 में गुजरात सल्तनत ने मुग़लों के डर से इसे पुर्तगालियों को दे दिया। सन् 1661 में पुर्तगालियों ने इसे इंग्लैंड के चार्लस द्वीतीय की पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन की शादी के बाद अंग्रेज़ों को दे दिया। अंग्रेज़ों ने इसे 1668 में ईस्ट इंडिया कंपनी को लीज़ पर दे दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसे डेवलप करके इसे बंदरगाह बनाया। 1782 से रिक्लेम करना शुरू किया जो 19वीं सदी में पूरा हो गया। सातों द्वीपों को मिलाकर एक भूभाग बना दिया। इसके बाद यहां अस्पताल (किंग्स सीमेन्स हॉस्पीटल 1756), स्कूल (एलफिंसटन हाई स्कूल 1822), रेलवे (1853), मिलें (बॉम्बे स्पिनिंग ऐंड वीविंग कंपनी ताड़देव 1856), कॉलेज (मुंबई यूनिवर्सिटी 1857), बिजली एवं ट्रांसपोर्ट (बेस्ट 1873) और कारोबारी गतिविधियां (बॉम्बे स्टॉक एक्चेंज 1875)शुरू हुईं, जिसके चलते मुंबई अहम व्यवसायिक केंद्र बन गया। यानी देश फिरंगी शासन में ठीकठाक विकास कर रहा था।
हां, सभी क़ानून बन जाने से राजाओं-सुल्तानों और उनके दलालों की हालत बेशक ठीक नहीं थी, क्योंकि उनकी ऐय्याशी पर अंकुश लगा था। वे चाहते थे,सत्ता उनके पास रहे, ताकि निरंकुश ऐय्याशी करें। लिहाज़ा, अंग्रेज़ों का विरोध राजाओं के वारिसों के इशारे पर उनके रोटी पर पलने वालों ने शुरू किया और उसे स्वतंत्रता आंदोलन का नाम दे दिया। जबकि वह फ्रीडम स्ट्रगल नहीं, बल्कि पॉवर स्ट्रगल था। उस आंदोलन में विदेशों में पढ़े-लिखे संपन्न लोगों की भागीदारी थी। ज़मींदार और भूस्वामी उसमें इसलिए शामिल हुए क्योंकि उन्हें अपनी संपत्ति-ज़मीन की रक्षा करनी थी। आज आज़ादी का मज़ा भी वही ले रहे हैं। आज देश में पोलिटिकल फैमिलीज़ बन गई है। राजनीति को इन परिवारों ने हाईजैक कर लिया है। सबसे मज़ेदार बात यह है कि आज़ादी मिलने का बाद भी गवर्नेंस सिस्टम अंग्रेज़ों का ही चल रहा है। वहीं जब सब कुछ वही रहना है तो फिर आज़ादी किस बात की। अगर अंग्रेज़ जनता को लूट रहे थे तो आज के नेता क्या कर रहे हैं।
सन् 1943 में ब्रिटिश सरकार ने हेल्थ सेवा के लिए सर जोसेफ भोरे की अध्यक्षता में समिति का गठन किया था, जिसने 1946 में रिपोर्ट दे दी थी। भोरे समिति ने कहा था, हेल्थ सर्विस उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी है। पैसे के अभाव में किसी नागरिक को अच्छी स्वास्थ सेवा से वंचित नहीं किया जा सकता है। अंग्रेज़ सिफ़ारिश को मानकर इलाज मुफ़्त करने वाले थे, लेकिन उनके जाने के बाद आज़ाद भारत में उस रिपोर्ट को डस्टबिन में डाल दिया गया। इससे यह साबित होता है, कि ग़ुलाम जनता के लिए जितने चिंतित गोरे थे, उतनी अपनी सरकार नहीं है। अंग्रेज़ जब देश को छोड़ रहे थे तब देश पर एक पाई भी क़र्ज़ नहीं है, आज हर भारतीय पर औसतन 44 हज़ार से ज़्यादा क़र्ज़ है। इसी तरह अंग्रेज़ों के समय भारतीय रुपया डॉलर के बराबर था, लेकिन आज एक डॉलर 64 रुपए के बराबर हो गया है। इन परिस्थितियों में ऐसे बहुत सारे लोग भी मिलेंगे, जो निःसंकोच कह देंगे कि इससे बेहतर को अंग्रेज़ों का शासन था। फिर गोरों के शासन को ग़ुलामी को संबोधन क्यों दिया जाता है, यह समझ से परे है।
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