शाहिद अंसारी
मुंबई:साल 1972 में बना कानून जिसके तहत सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ़ भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर कार्रवाई को लेकर राज्य सरकार से इजाज़त लेनी पडती है।लेकिन इसी कार्रवाई को लेकर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने आदेश जारी किया था कि ऐसे किसी भी मामले में जिसमें सरकारी कर्मचारी अगर भ्रष्टाचार मे शामिल हैं तो उसके लिए उसके खिलाफ़ ACB को FIR दर्ज करने के लिए किसी से भी इजाज़त की जरूरत नहीं है। ACB को पूरी आजादी है कि जांच में अगर वह अधिकारी भ्रष्टाचार में शामिल पाया जाता है तो उसके विरूद्ध मामला दर्ज कर कार्रवाई आगे बढ़ाई जानी चाहिए।लेकिन राज्य सरकार ने ACB कार्रवाई पर 1972 मे बनाए गए उस कानून को लागू किया है जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया है।
क्या था राज्य सरकार का 1972 का कानून
महाराष्ट्र सरकार का 1972 का जो कानून था उसमें ऐसा कहा गया है कि ACB अगर पहले से चौथे दर्जे के सरकारी कर्मचारी को अगर रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार में शामल पाती है तो उसके खिलाफ़ जांच के लिए उस अधिकारी के संबंधित विभाग से उसके वरिष्ठ अधिकारी को पहले जानकारी दे और फिर उससे उसके खिलाफ जांच करने के लिए इजाज़ मांगे इजाज़त मिलने के बाद ही ACB उसके खिलाफ़ जांच कर सकती है।इस कानून के तहेत अगर सरकारी कर्मचारी के खिलाफ भ्रष्टाचार में शामिल होने की जानकारी या शिकायत अगर ACB को मिलती है तो वह जाँच उसके ही विभाग के अधिकारी करते थे।जबकि यह जाँच ACB के अंतर्गत आती है।खासकर भ्रष्टाचार से जुड़े मामले।इसी लिए मुंबई हाई कोर्ट ने इसे ख़ारिज कर दिया।
मुंबई हाई कोर्ट का फैसला
इस कानून को 22 सितंबर 2009 को मुबंई हाईकोर्ट मे चुनौती दी गई जिसके बाद मुंबई हाई कोर्ट ने इसे खारिज करते हुए ACB को पूरी जादी दी कि वह अगर सरकारी कर्मचारियों को भ्रष्टाचार में शामिल पाते हैं तो बिना किसी की इजाज़त के उसपर कार्रवाई कर जांच कर सकते हैं।स आदेश के बाद राज्य सरकार को मजबूरन साल 2010 में परिपत्रक क्र.एसीबी-2109/प्र.क्र407पोल-2 ACB महाराष्ट्र को सरकुलर जारी करते हुए कहा कि मुंबई हाई कोर्ट के जरिए 22 सितंबर 2009 को जो याचिका दाखिल की गई थी जिसमें भ्रष्टाचार में शामिल अधिकारियों के खिलाफ़ जांच के लिए या FIR दर्ज करने के लिए इजाज़त लेने को लेकर थी।मुंबई हाई कोर्ट के इस फैसले में साफ़ कहा गया था कि गर भ्रष्टाचार में सरकारी अधिकारी शामिल पाए जाते हैं तो उनके खिलाफ़ जांच के लिए ACB को राज्य सरकार से इजाज़त लेने की जरूरत नहीं।
राज्य सरकार का यू टर्न
राज्य सरकार ने साल 2015 में परिपत्रक क्र.वशिअ1314/प्र.क्र.85/11 जारी करते हुए कहा कि ACB अब फिर से उन सारे अधिकारियों की (एक से लेकर चौथे दर्जे के जो सरकारी अधिकारी और कर्मचारी हैं) के खिलाफ़ अगर रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार मे शामिल होने को लेकर किसी तरह की कोई कार्रवाई करती है तो उसके पहले उन्हें कार्रवाई को लेकर इजाज़त लेनी पड़ेगी।इसके साथ साथ राज्य सरकार ने 12 मार्च 1981 के कानून का भी हवाला दिया है।इस कानून के तहेत केवल पहले दर्जे के अधिकारियों के खिलाफ़ जांच के लिए इजाज़त लेनी पडती थी।लेकिन इस सरकुलर में राज्य सरकार ने 1972 और 1981 के दोनों क़ानून जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया और फिर से लागू करदिया।जिसकी कॉपी BOMBAY LEAKS के पास है।ACB के लिए यह कानून थोपने का मतलब है ACB विभाग भले ही बनाया गया हो लेकिन उसे सरकारी अधिकारीयों के खिलाफ़ कार्रवाई करने की आज़ादी नहीं खासकर राज्य सरकार के भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ़।
देश की हर जांच एजेंसी को लेकर है आदेश
6 मई 2014 को सीबीआई की इसी जांच को लेकर सीबीआई को लेकर जब पी चिदंबरम ने आदेश जारी किया था कि ज्वाइंट सिग्रेट्री रैंक के ऊपर अधिकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए फाएनेंस मिनिस्टर की इजाज़त लेनी पडती है उन्होंने 1997 में बने इस तरह के कानून का हवाला दिया था।इस आदेश और इस कानून को भी दिल्ली की कोर्ट नें खारिज करिदिया था।
सुब्रामनियाम स्वामी ने कोर्ट मे दी थी दस्तक
1997 का कानून था जब पी चिदंबरम देश के फाएनेंस मिनिस्टर थे उन्होंने उस समय यह कानून बनाया था जिसको लेकर सुब्रामनियाम स्वामी ने दिल्ली की कोर्ट में इसे चुनौती दी और कोर्ट ने 1997 के इस क़ानून को खारिज करते हुए 6 मई 2015 को फैसला सुनाया था कि अधिकारियों के खिलाफ़ सीबीआई को भ्रष्टाचार में शामिल होने के खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए किसी की इजाज़त की जरूरत नहीं ।जबकि 1997 के कानून में अगर ज्वाइंट सिग्रेट्री रैंक के ऊपर अधिकारियों के खिलाफ़ कार्रवाई करनी है तो उसके लिए फाएनेंस मिनिस्टर से इजाज़त लेनी पड़ती थी।लेकिन इस आदेश ने किसी भी दर्जे के अधिकारी के लिए मांगी गई इजाज़त को ही सिरे से मना कर दिया और सीबीआई को जांच की पूरी आज़ादी दी।
सुब्रामनियाम स्वामी ने BOMBAY LEAKS से बात करते हुए कहा कि इस तरह के कोर्ट के जो आदेश हैं वह करप्शन के खिलाफ़ लडने वाली हर उस एजेंसी के पर लागू होते हैं।इस आदेश के बाद महाराष्ट्र ऐंटी करप्शन ब्युरो ने राज्य सरकार को 13 मई 2014 को ही पत्र लिखकर आवगत कराया था।
लेकिन राज्य सरकार ने कोर्ट के फैसलों और आदेशों को नज़र अंदाज़ करते हुए साल 2015 में अपना फरमान ACB पर फिर से लागू कर दिया।इस फरमान के बाद सीनियर वकील आभा सिंह ने कहा कि इस बार सरकार के गठन होने के बाद से सरकार ने कानून का उल्लघन करते हुए मनमाने तरीके से कई सारे आदेश जारी किए जो कि कानून की किसी भी किताब मे फिट नहीं बैठता।उनमें खासकर आईपीएस अधिकारियों की नियुक्तियां भी हैं।लेकिन राज्य सरकार के जरिए अब कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा कर 1972 के बनाए गए कानून को थोपने का मतलब साफ़ है कि राज्य सरकार के सामने हाई कोर्ट सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फैसले माने नहीं रखते।आभा सिंह ने कहा कि हम राज्य सरकार के अधिकारी अपर मुख्य सचिव डॉ भगवान सहाय के ज़रिये ACB को दिए गए साल 2015 के सरकुलर के खिलाफ़ फिर से कोर्ट में चुनौती देंगे।हमें इस बात का विश्वास है कि सरकार को कोर्ट और कानून की भाषा जरूर समझ में आएगी।उन्होंने कहा कि ACB का गठन इसी लिए किया गया है कि भ्रष्टाचार के मामलों की आजादी से जांच करें इस तरह से इजाज़त लेने का मतलब है कि सीधे सीधे उनकी जांच मे दख़ल अंदाज़ी करना और उनसे उनकी आज़ादी छीनना। इससे भ्रष्टाचारियों को राहत मिलती है क्योंकि उनके वरिष्ठ अधिकारी उनके खिलाफ़ कार्रवाई करने की इजाज़त देना तो दूर की बात वह उन्हें बचाने का कोई ना कोई तरीका ज़रूर ढूंढ निकालेंगे इस लिए इस तरह के पुराने कानून जिसे कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया उसे थोपना मुनासिब नहीं।
Post View : 20