साहेब-ए-आलम अंसारी
अल्लाह ने अपनी पवित्र किताब क़ुरआन मजीद और अपने रसूल हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के द्वारा जो संविधान हमें प्रदान किया है, उसके बहुत से विभाग हैं। इस क़ानून का एक विभाग इंसानी समाज से संबंधित है, जिस पर पारिवारिक व्यवस्था की आधारशिला है। इन्हीं क़ानूनों को मुस्लिम पर्सनल लॉ कहा जाता है। अंग्रेज़ों के शासनकाल में मुसलमानों की मांग पर 1937 ईसवी में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीअत) अप्लिकेशन एक्ट,1937 पास किया गया था। उसके अनुसार निकाह, तलाक़, ख़ुला, ज़िहार, फ़स्खे निकाह,परवरिश का हक़, विलायत, मीरास, वसीयत,हिबा और शुफ़आ से संबंधित मामलों में अगर दोनों पक्ष मुसलमान हों, तो शरीअत-ए-मुहम्मदी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के अनुसार उनका फ़ैसला होगा, चाहे उनकी रीति-रिवाज और परंपरा कुछ भी हो। अर्थात यह कि इस्लामी शरीअत के क़ानून को आम रीति-रिवाज पर प्राथमिकता प्राप्त होगी।
भारतीय संविधान के ‘मौलिक अधिकार’ अध्याय में अक़ीदा, धर्म और अंतरात्मा की आज़ादी को एक मौलिक अधिकार ठहराया गया है। यह धारा वास्तव में मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा की गारंटी देती है। मुस्लिम पर्सनल लॉ उन क़ानूनों का संग्रह है, जो क़ुरआन और हदीस से निकाल कर बनाए गए हैं और क़ुरआन व हदीस की स्पष्ट शिक्षाओं में किसी परिवर्तन का अधिकार किसी इंसान या इंसानी समुदाय को नहीं है। मुसलमानों की ज़िम्मेदारी है कि वे जीवन के सभी पहलुओं में अल्लाह और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आदेशों को सामने रखें, विशेषकर पारिवारिक जीवन के बारे में क़ुरआन और हदीस में जो क़ानून बयान किए गए हैं, उन पर अपना जीवन व्यतीत करें। इसी तरह यह भी उन पर अनिवार्य है कि अगर इन क़ानूनों के अमल से उनको रोकने का षड्यंत्र किया जाए और उन्हें निरस्त करने या उनको बदल देने का आन्दोलन चलाया जाए, तो वे उनकी रक्षा के लिए प्रयास करें और अपना यह अधिकार मनवाएं कि देश के संविधान के अनुसार उन्हें उन पर अमल करने की आज़ादी है।
यह एक हक़ीक़त है कि देश की आज़ादी के बाद से मुसलमानों की दीनी, मिल्ली जमाअतों ने समान नागरिक संहिता का विरोध और अदालतों के माध्यम से इस्लामी शरीअत के क़ानून में किए जाने वाले हस्तक्षेप के विरुद्ध पूरी ताक़त के साथ आन्दोलन चलाया है। फिर भी जितनी ताक़त से उन्हें समाज के सुधार और आम मुसलमानों को पारिवारिक क़ानूनों और आदेशों से परिचित कराने और इस्लामी शरीअत के क़ानून के साथ किए जाने वाले अन्यायों की मुख़ालिफ़त करनी चाहिए थी, उस पर भली-भांति ध्यान नहीं दिया जा सका। पारिवारिक क़ानूनों की अवहेलना का एक कारण उनकी अनभिज्ञता है और दूसरा मुख्य कारण इस्लाम से दूरी है। हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग इस्लाम की मूल और सामाजिक शिक्षाओं से बिलकुल अनजान है। निकाह, तलाक़, मीरास और दूसरे पारिवारिक समस्याओं के बारे में इस्लामी धारणा, शिक्षा और सिद्धांतों से अकसर मुसलमान अनजान हैं, इसलिए ज़रुरत इस बात की है कि मुस्लिम समाज के सुधार व शिक्षण-प्रशिक्षण पर विशेष ध्यान दिया जाए।
मौजूदा परिस्थितियों की मांग है कि अब हमें पूरी शक्ति के साथ मुस्लिम समाज के सुधार की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहिए। मुस्लिम समुदाय को पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में इस्लामी शिक्षाओं और सिद्धांतों से अवगत कराना चाहिए। पारिवारिक जीवन में जो बिगाड़ पैदा हो रहा है, या जो खुला उल्लंघन हो रहा है, उनको मिटाने के लिए कोई ठोस क़दम उठाने चाहिए। मुसलमानों को इस बात पर तैयार करने की आवश्यकता है कि वे अपने पारिवारिक विवादों का फ़ैसला इस्लामी शरीअत के अनुसार दारुल क़ज़ा के माध्यम से ही निपटारा कराएं। इस बात की भी ज़रुरत है कि प्रिय देशवासियों को पारिवारिक जीवन के बारे में इस्लामी क़ानूनों से इस तरह परिचित कराया जाए कि उन पर इन क़ानूनों का प्रकृति के अनुकूल होना स्पष्ट हो जाए। फिर यह भी कि वे यह जान लें कि मुस्लिम पर्सनल लॉ, नैतिक चरित्र और प्रेम, न्याय और संतुलन का क़ानून है, जो दाम्पत्य जीवन को ख़ुशियों से भर देता है और एक आदर्श परिवार अस्तित्व में आता है। यह इस्लामी क़ानून महिलाओं की इज़्ज़त और सतीत्व और उनके अधिकारों का रक्षक है। फिर यह भी कि यह क़ानून उनके स्वाभाविक स्वतंत्रता का भी रक्षक है। आशा है कि इसके बाद वे समान नागरिक संहिता जैसे अनुचित क़ानून का समर्थन न करेंगे। अगर मुसलमानों को इस्लाम के पारिवारिक क़ानूनों और आदेशों से भलीभांति परिचित करा दिया जाए, मुसलमान इस्लामी शरीअत के क़ानूनों के उल्लंघन से बचेंगे और उनका जीवन इस्लामी शरीअत के क़ानूनों के अनुसार गुज़रने लगे, तो एक सभ्य व आदर्श परिवार अस्तित्व में आएगा, जिसके सौभाग्य से दूसरे देशवासी भी लाभांवित हो सकेंगे। जमाअत-ए-इस्लामी हिन्द की ओर से चलाया जाने वाला ‘मुस्लिम पर्सनल लॉ जागरूकता अभियान’ ऊपर लिखे उद्देश्यों को प्राप्त करने में इंशाअल्लाह सहायक सिद्ध होगा।
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